दो वक़्त की रोटी को मैं निकला था गाँव से
अम्मा बिलख-बिलख रोई , बापू भी थे बौराये से
क्यों जाते हो शहर को, इन खेतों को पीछे छोड़
अपना घर यह गांव है, बाकी सब है माया मोह
न आई बात समझ तब, चल दिए सीना चौड़ा कर
शहरों में पैसा है, गाँव में आखिर रखा क्या है
एक छोटा सा है खेत, खून पसीना बहे अपार
आंधी तूफ़ान आये और कर दे सब बेकार
गर आंधी से बच जाए धान, कितना मै पाउँगा
कुछ आ भी जावे तो क्या ही बचाऊंगा
अरे घर कैसे चलाऊंगा जब है बड़ा परिवार
इसलिए अनसुनी करके, निकला था लाचार
किया मजूरी, धक्के खाए, सहे हर हालात
भीषण सर्दी गर्मी में न लौटा अपने गाँव
गांव जहा थक जाने पर माँ गर्म दूध पिलाती थी
नीम की ठंडी पुरवाई सारे गम भुलाती थी
कुछ पैसों के लिए बनाया अनजान शहर को अपना
आ पड़ी विपदा जिसका नाम था कोरोना
हालात फिर बदले बोला निकलो अपने घर
ये शहर नहीं था अपना, कोई न था हमदर्द
चल दिए पथिक हम वापिस अपना झोला लेकर
क्या होगा आगे इसकी किसी को न थी खबर
न जेब में पैसा, न ही खाने का कोई ठिकाना था
चल दिए हौसला लेकर, तिनके सा कोई सहारा न था
कितने मीलों दूर चलें, चप्पल ने भी साथ छोड़ दिया
दो सूखी रोटी खा के, गाओं की ओर रुख मोड़ लिया
फटी बिवाई, निकला खून, तार की उन सड़कों पर
जो शहर को जोड़े गाओं की उन कच्ची गलियों पर
वो लम्बा सफर तय कर, अधमरा सा घर पहुंचा हूँ
अब लगा यहाँ अपनापन, शहरों में बस धोखा है
सब भागे कमाने की खातिर, न मनुष्यता, न प्रेम है
जहाँ देखो वही बस इंसानों की होड़ है
नहीं चाहिए ज़्यादा पैसा, करनी नहीं मजूरी
गाँव मेरा घर है, शहर जाना नहीं ज़रूरी
दो वक़्त की रोटी, यहीं रहकर कमाऊंगा
अब शहर नहीं जाऊंगा, अब शहर नहीं जाऊंगा
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Wrote this a month back in the plight of migrants during COVID-19, posting it now. Hope you like it. To follow my daily updates and content follow me on Instagram @appy.tales.
जिसने माटी से मुँह मोड़ा
माटी को रुलाया जिसने यहां
कहते मा हम उस माटी को सदा
माफ कर वो पुत्र को सदा करे यहां।।
आपने सीने सदा लगाए
पुत्र माटी का है यह
गलती करे तो माँगे माफी
माफी से बड़ा कोई दान नही यहां
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